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गुरुवार, 20 मई 2010

अलाव

कभी -कभी...
असमंजस में फंस जाता हुं!
क्या यह सही है ?
जो लिखते हैं ..वही दुसरे की पढते है ॥
और .. जो पढते हैं , वही लिखते है
जिन पर लिखा जाता है ...
क्या वे कभी पढ़ते है॥?
अगर पढ़ते भी हैं ....तो
क्या उनमे गन्दी मानसिकता का जीवाणु
इस कदर बैठा है ... कि॥
कहानी का टैबलेट
ग़ज़ल का कैप्सूल
और ......
कविता का एंटीबायोटिक ॥
असर नहीं करता ....

आओ ! मेरे दोस्त !!!
हर गाँव में .....
शहर क़ी चौक -चौराहो पर ...
एक " अलाव" जलाये
जिसमे सब साथ बैठेगे ॥
मां भी /बेटी भी...
विधवा भी /सुहागन भी ...
डॉक्टर भी / नर्से भी ...
मजदूर भी / नेता भी ...
जहां सब मिल चर्चा करेगे ..कि॥
क्यों नहीं डालती असर ॥
सरकारी कानून हम सब पर ॥
कुछ ऐसी भी बातें करेगे ...कि
भविष्य में...
किसी कवि को न लिखनी पड़े कविता ....
भूर्ण हत्या /सामाजिक रुढियो /दहेज़ /जाती-पाती पर
और साथ बैठ कर खा लेगें ...
सांझे चूल्हे की रोटिया ॥
और सरसों की साग ...

आज जलाई थी ...
मैंने एक अलाव ॥
अपने मोहल्ले में ॥
सबने एक फैसला लिया है ॥
अपने अंदर के '' अलाव " को जलाने की ॥
इस पर हम सब कायम रहेगें .

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